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नई दिल्ली। जब अंबर से अमृत बरसे तो बूंद-बूंद को हम क्यों तरसें। गर्मियां शुरू हो चुकी हैं। बारहमासी बन चुकी पेयजल किल्लत की भयावह तस्वीर जल्द ही दिखनी शुरू हो जाएगी। इंसानी अस्तित्व और विकास को पीछे धकेलने वाली इस चुनौती को हमने ही समस्या बनाया है। क्योंकि पानी सहेजने को लेकर हम कतई अन्यमनस्क हैं। कुछ को तो लगता है कि अथाह पानी है। कभी नहीं खत्म होगा। कुछ सोचते हैं, कि अपनी जिंदगी तो पार ही हो जाएगी। कुछ का मानना है कि सिर्फ हमारे बचाने से क्या होगा, पड़ोसी तो इतना बर्बाद कर रहा है। यही सोच समस्या की मूल वजह हैं। जिस दिन हम चेत गए, धरती के ऊपर और नीचे लबालब स्वच्छ पानी का भंडार होगा। लोगों में इसी चेतना को विकसित करने के लिए केंद्र सरकार एक देशव्यापी अभियान शुरू कर रही है।
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विश्व जल दिवस यानी 22 मार्च से लेकर 30 नवंबर तक चलने वाले ‘कैच द रेन: ह्वेन इट फाल्स, ह्वेयर इट फाल्स’ नामक अभियान का आज पीएम मोदी आगाज कर रहे हैं। इसके तहत हर जिले में बारिश के पानी को सहेजने के लिए रेन सेंटर्स बनाए जाएंगे, जहां तैनात एक विशेषज्ञ इच्छुक लोगों को उनके भवनों, जमीनों में बारिश की एक-एक बूंद को संग्रहीत करने वाली तकनीक की बारीकियों से अवगत कराएगा। पानी की बर्बादी रोकना कतई निजी मामला है। हमारे सामने कोई दिक्कत आती है तो हम खुद ही उसका सामना करते हैं तो पेयजल संकट के लिए औरों को क्यों सामने कर देते हैं। कोई एक आदमी यह काम शुरू करेगा तो दूसरा उसका अनुसरण करेगा। फिर फेहरिस्त लंबी होती चली जाएगी। इस चेन रियक्शन का परिणाम यह होगा कि देश पानीदार हो जाएगा। पानीदार होने का सिर्फ यही फायदा नहीं है कि हमारा गला तर रहेगा।
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अध्ययन बताते हैं कि ज्यादतर बीमारियों के लिए अशुद्ध पानी जिम्मेदार है जिसके इलाज में हर साल हम भारी-भरकम राशि खर्चते हैं। पेड़-पौधे लहलहाएंगे। ज्यादा आक्सीजन उन्मुक्त करेंगे। शुद्ध हवा फेफड़े को मजबूत करेगी। हरियाली बढ़ेगी तो वायुमंडल के कार्बन का अवशोषण भी बढ़ेगा। प्रकृति स्वस्थ होगी तो इंसानियत जिंदाबाद रहेगी। सिर्फ एक उपक्रम से इंसानी जीवन चक्र में 360 डिग्री बदलाव अगर आता है तो भला इससे दूर कौन रह सकता है।
आज भी खरे हैं तालाब: मानसून के दौरान चार महीने होने वाली बारिश का पानी ताल-तलैयों जैसे जलस्नोतों में जमा होता है। इससे भूजल स्तर दुरुस्त रहता है। जमीन की नमी बरकरार रहती है। धरती के बढ़ते तापमान पर नियंत्रण रहता है। तालाब स्थानीय समाज का सामाजिक, सांस्कृतिक केंद्र होते हैं। लोगों के जुटान से सामुदायिकता पुष्पित-पल्लवित होती है। लोगों के रोजगार के भी ये बड़े स्नोत होते हैं।
कहां गए जीवनदाता:
तब: 1947 में देश में कुल चौबीस लाख तालाब थे। तब देश की आबादी आज की आबादी की चौथाई थी।
अब: वैसे तो देश में तालाब जैसे प्राकृतिक जलस्नोतों का कोई समग्र आंकड़ा मौजूद नहीं है लेकिन 2000-01 की गिनती के अनुसार देश में तालाबों, बावड़ियों और पोखरों की संख्या 5.5 लाख थी। हालांकि इसमें से 15 फीसद बेकार पड़े थे, लेकिन 4 लाख 70 हजार जलाशयों का इस्तेमाल किसी न किसी रूप में हो रहा था
अजब तथ्य
1944 में गठित अकाल जांच आयोग ने अपनी सिफारिश में कहा था कि आने वाले वर्षो में पेयजल की बड़ी समस्या खड़ी हो सकती है। इस संकट से जूझने के लिए तालाब ही कारगर होंगे। जहां इनकी बेकद्री ज्यादा होगी, वहां जल समस्या हाहाकारी रूप लेगी। आज बुंदेलखंड, तेलंगाना और कालाहांडी जैसे क्षेत्र पानी संकट के पर्याय के रूप में जाने जाते हैं, कुछ दशक पहले अपने प्रचुर और लबालब तालाबों के रूप में इनकी पहचान थी।
खात्मे की वजह
समाज और सरकार समान रूप से जिम्मेदार हैं। कुछ मामलों में इन्हें गैर जरूरी मानते हुए इनकी जमीन का दूसरे मदों में इस्तेमाल किया जा रहा है। दरअसल तालाबों पर अवैध कब्जा इसलिए भी आसान है क्योंकि देश भर के तालाबों की जिम्मेदारी अलग-अलग महकमों के पास है। कोई एक स्वतंत्र महकमा अकेले इनके रखरखाव-देखभाल के लिए जिम्मेदार नहीं है।