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नई दिल्ली। हिरासत में मौत का मामला एक घृणित कृत्य है और सभ्य समाज में इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने यह बात गुरुवार को ओडिशा में हिरासत में हुई मौत के मामले की सुनवाई करते हुए कही। 1988 की इस घटना में दो पुलिसकर्मी दोषी पाए गए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने दोषी पुलिसकर्मियों को किसी तरह की राहत देने से इन्कार कर दिया। शीर्ष न्यायालय ने कहा, यह अपराध केवल मृतक के खिलाफ नहीं है बल्कि समूची मानवता के खिलाफ है। यह संविधान के अनुच्छेद 21 का भी उल्लंघन है जिसमें व्यक्ति को जीने का अधिकार दिया गया है।
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पुलिस सुरक्षा देने के लिए है, भय पैदा करने के लिए नहीं
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सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस अजय रस्तोगी की पीठ ने मामले को आइपीसी की धारा 324 (हृदय संबंधी बीमारी) में तब्दील किए जाने की मांग को नामंजूर कर दिया। पीठ ने कहा कि किसी भी व्यक्ति को पुलिस थाने में बर्बरता से पीटा जाना पूरे समाज को भयभीत करता है और पुलिस के प्रति लोगों के विश्वास को कम करता है। लोगों में विश्वास होता है कि पुलिस उनकी जान और संपत्ति की सुरक्षा के लिए है। लेकिन इस तरह की घटनाएं इस भावना को कमजोर करती हैं। इसलिए इस तरह की घटनाओं के दोषियों को निश्चित रूप से दंडित किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश उन दो अवकाश प्राप्त अधिकारियों की याचिका पर आया है जो हाईकोर्ट से दंडित किए जा चुके हैं।
दोनों अधिकारी ओडिशा के एक थाने में एक व्यक्ति की बर्बर पिटाई के दोषी पाए गए थे जिसकी बाद में मौत हो गई थी। इन पूर्व अधिकारियों ने अपनी याचिका में मौत का कारण मृतक की हृदय संबंधी बीमारी बताया था।