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चीन के चंगुल में न फंसने पाए म्यांमार, अमेरिका को अपनानी होगी दूरदर्शी एवं व्यावहारिक रणनीति

बीते दिनों म्यांमार में हुए सैन्य तख्तापलट के साथ ही कई सवाल उठने लगे हैं। इनमें एक प्रश्न यह है कि क्या भारत के इस अहम पड़ोसी देश पर पश्चिमी देश प्रतिबंध लगाएंगे और वह फिर से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग पड़ जाएगा और वहां वैसे हालात बन जाएंगे जैसे लोकतंत्र की शुरुआत से पहले बने हुए थे? 2010 में भारत यात्रा के दौरान तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने म्यांमार के साथ सक्रिय संवाद वाली भारतीय नीति की आलोचना की थी। हालांकि कुछ महीनों के भीतर खुद ओबामा ने भी वैसी ही नीति अपनाई। फिर 2012 में उनका ऐतिहासिक म्यांमार दौरा हुआ। अब म्यांमार पर प्रतिबंधों का साया फिर से मंडरा रहा है तो क्या इतिहास खुद को दोहराएगा

म्यांमार और भारत के समक्ष बिगड़ैल चीन से है खतरा 

भारत की 1,643 किमी लंबी सीमा म्यांमार से लगती है। दोनों देशों के बीच बंगाल की खाड़ी में 725 किमी लंबी तट रेखा भी है। नई दिल्ली म्यांमार को दक्षिणपूर्व एशिया में अपने द्वार के रूप में भी देखती है। भारत अपनी ‘एक्ट ईस्ट नीति’ के माध्यम से व्यापक आर्थिक एकीकरण में भी लगा है। म्यांमार और भारत के समक्ष कई साझा खतरे भी हैं। इनमें से एक ताकतवर होते बिगड़ैल चीन से भी है।

रोहिंग्या के मसले पर सू की के रवैये से सेना को निराशा ही हाथ लगी

म्यांमार प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध है। हालांकि आजादी के बाद से ही यहां सेना को छोड़कर कोई अन्य संस्थान फला-फूला नहीं। यहां विभिन्न मतों और नस्ल वाले लोग रहते हैं। उत्तरी एवं पूर्वोत्तर के इलाकों में नस्लीय अलगाववाद की समस्या भी है। हालांकि सेना ने एक दशक पहले देश में चरणबद्ध रूप से लोकतांत्रिक प्रक्रिया को शुरू किया, फिर भी पश्चिमी देशों ने सेना के साथ रिश्ते सहज करने की दिशा में कदम नहीं बढ़ाए। उन्होंने सिर्फ आंग सान सू की पर ही पूरा दांव लगाया। हालांकि वर्ष 2017 में रोहिंग्या के मसले पर सू की के रवैये से भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी।

म्यांमार के बर्मीकरण की प्रक्रिया में भारतीयों को वहां से भगाया जा रहा था

रोहिंग्या को म्यांमार से बड़ी तादाद में बेदखल करने के वाकये ने 1960 के दशक में म्यांमार से पलायन करने वाले पांच लाख से अधिक भारतीय मूल के लोगों की यादें ताजा करा दी थीं। उस समय म्यांमार सैन्य तानाशाह नेविन की मुट्ठी में था, जिसने 1962 में सत्ता हासिल की। इसके बाद 26 वर्षों तक म्यांमार पूरी दुनिया से कटा रहा। म्यांमार के बर्मीकरण की प्रक्रिया में भारतीयों को वहां से भगाया जा रहा था। नेविन ने भारतीयों को उत्पीड़न का शिकार बनाया। उसने निजी उद्योगों का राष्ट्रीयकरण करना शुरू कर दिया। इसका मकसद संपन्न भारतीयों को विपन्न बनाकर वहां से भागने पर विवश करना था। इसके चलते भारत सरकार को भारतीय मूल के लोगों को वहां से लाने के लिए विमान और नौकाएं भेजनी पड़ीं।

चीन उत्तरी म्यांमार में विद्रोहियों को मदद पहुंचाता, भारत को म्यांमार की सेना के सहयोग की दरकार

1988 तक आते-आते नेविन की विदाई हो गई। तब तक म्यांमार की गिनती दुनिया के दस सबसे गरीब मुल्कों में होने लगी। अनैतिक इतिहास के बावजूद भारत ने अपने हितों को देखते हुए म्यांमार के सैन्य नेतृत्व के साथ सहयोग बढ़ाया। चार महीने पहले ही भारत ने एक किलो क्लास पनडुब्बी की मरम्मत कराकर उसे म्यांमार को उपहारस्वरूप भेंट किया। यह म्यांमार की पहली पनडुब्बी है। भारत ने पिछले महीने ही 15 लाख कोरोना वैक्सीन मुफ्त में म्यांमार को उपलब्ध कराइ हैं। गत वर्ष अक्टूबर में भारतीय सेना प्रमुख और विदेश सचिव ने म्यांमार का दौरा किया था। यह एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम था। ध्यान रहे कि चीन उत्तरी म्यांमार में विद्रोही समूहों को मदद पहुंचाता है। ये विद्रोही भारत के खिलाफ भी मोर्चा खोल सकते हैं। असल में वे भारत-म्यांमार सीमा के दोनों ओर सक्रिय हैं। इसे देखते हुए भारत को म्यांमार की सेना के सहयोग की दरकार है।

सैन्य तख्तापलट ने म्यांमार को लेकर अमेरिकी नीति की खामी को किया उजागर

बीते दिनों हुए सैन्य तख्तापलट ने म्यांमार को लेकर अमेरिकी नीति की एक बड़ी खामी को उजागर कर दिया। वह सैन्य नेतृत्व के साथ कोई कड़ी नहीं जोड़ सका। वास्तव में अमेरिका नवंबर 2019 तक म्यांमार के शीर्ष सैन्य नेतृत्व पर शिकंजा कसे रहा। र्रोंहग्या मुसलमानों के दमन को नस्लीय सफाया करार देकर उसने दिसंबर 2017 से जनरलों पर वीजा प्रतिबंध लगाए रखने के साथ ही देश पर आर्थिक प्रतिबंध भी जारी रखे। अमेरिका इस सच्चाई को समझने में नाकाम रहा कि म्यांमार में लोकतंत्र को कायम रखने में सेना का सहयोग आवश्यक होगा, अन्यथा वहां सैन्य शासन वापस लौट आएगा। लोकतंत्र को सैन्य नेतृत्व के निरंतर समर्थन के एवज में उसे प्रोत्साहन देने के बजाय अमेरिका उलट व्यवहार ही करता रहा।

म्यांमार को लेकर अमेरिकी आकलन गलत

म्यांमार को लेकर गलत अमेरिकी आकलन ने नए सैन्य शासन के साथ वाशिंगटन के लिए बहुत कम गुंजाइश छोड़ी है। अमेरिका अगर फिर से 2012 से पहले वाले प्रतिबंधों के उस दौर में वापस लौटता है जब 25 वर्षों की पश्चिमी सख्ती के कारण म्यांमार को बड़ी हिचक के साथ चीन की गोद में जाकर बैठना पड़ा था तो यह अमेरिका का सबसे खराब दांव होगा। ऐसी कोई भी नीति म्यांमार को लेकर अमेरिका की नाकामी को और उलझाएगी। अमेरिका के नेतृत्व में म्यांमार को अलग-थलग करने की कोशिश चीनी तानाशाह शी चिर्नंफग को उस देश में आक्रामक रूप से अपने हितों को पोषित करने का अवसर प्रदान करेगी

म्यांमार की अति-राष्ट्रवादी सेना चीन पर भरोसा नहीं करती

म्यांमार की अति-राष्ट्रवादी सेना चीन पर भरोसा नहीं करती। उसका मानना है कि म्यांमार की सेना और सरकार को साधने के लिए ही चीन वहां अलगाववाद को मदद करता है। म्यांमार के जनरलों को असल में चीन के साथ सू की की बढ़ती नजदीकी भी खटक रही थी। यह नजदीकी तब दिखी भी जब 13 महीने पहले शी ने म्यांमार दौरे के दौरान 33 द्विपक्षीय संबंधों पर हस्ताक्षर किए। यह दो दशकों में किसी चीनी नेता का पहला म्यांमार दौरा था। जनरलों ने चीन पर म्यांमार की निर्भरता घटाने के लिए ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया शुरू की थी, ताकि वे लोकतांत्रिक देशों के साथ संबंध बढ़ाकर अपनी विदेश नीति को संतुलन दे सकें। ऐसे में यह उनके लिए अंतिम विकल्प होगा कि उनका देश फिर से चीन के साये में चला जाए।

म्यांमार को लेकर प्रतिबंधों के बजाय अमेरिका को दूरदर्शी एवं व्यावहारिक रणनीति अपनानी चाहिए

ऐसे परिदृश्य में भारत को अमेरिका को इसके लिए समझाना चाहिए कि म्यांमार को लेकर प्रतिबंधों के बजाय प्रोत्साहन आधारित दूरदर्शी एवं व्यावहारिक रणनीति अपनाने की दरकार है। अमेरिकियों को भारत और जापान जैसे अपने उन मित्र देशों के साथ अवश्य परामर्श करना चाहिए, जिन्होंने म्यांमार में भारी निवेश किया है और उसके सैन्य नेतृत्व से बढ़िया रिश्ते बनाए हैं। भारत और जापान की नीतियों की धुरी रणनीतिक रूप से इस अहम देश में चीनी प्रभाव की काट करने पर टिकी हुई है।