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नई दिल्ली। यह सच है कि कठिन समय में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) ने देश को खाद्यान्न मामले में आत्मनिर्भर बनाया। चुनी हुई फसल की उत्पादकता बढ़ाने में इसकी भूमिका रही है। लेकिन यह भी उतना ही कड़वा सच है कि एमएसपी ने भ्रष्टाचार की फसल को भी सींच दिया। अनाज खरीद के लिए बने भारतीय खाद्य निगम (एफसीआइ) के जरिये सार्वजनिक वितरण प्रणाली यानी पीडीएस चलाने के लिए जो खरीद होती है उसकी गुणवत्ता किसी से छिपी नहीं है।
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एफसीआइ पहुंचने वाले अनाज में कचरा, नमी, डैमेज्ड आदि का अंश चौथाई से ज्यादा
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अनाज में कचरा, डैमेज, वेस्टेज, लीकेज, नमी को नजरअंदाज कर देश को दशकों से हजारों करोड़ रुपये का चूना लगाया जाता रहा है। खरीद की क्वालिटी में छूट का फायदा आढ़तिए, बड़े और प्रभुत्व वाले किसान उठाते हैं। छोटे किसानों से नमी और कचरा के नाम पर कटौती होती है। पिछले कुछ दशकों में एमएसपी राजनीतिक रूप से संवेदनशील मसला हो गया है और कोई सरकार इसे छूने का साहस नहीं दिखा पा रही है। लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि वक्त आ गया है जब पीडीएस में भी अच्छी गुणवत्ता वाले अनाज वितरण के लिए धीरे-धीरे बाजार का रुख करना चाहिए और किसानों के लिए ग्रीन सब्सिडी बढ़ानी चाहिए।
सरकार को करोड़ों रुपये का लगाया जा रहा चूना
किसानों को उचित मूल्य दिलाने और गरीबों को रियायती दर पर राशन उपलब्ध कराने के उद्देश्य से गठित एफसीआइ में सुधार को लेकर शांता कुमार कमेटी ने अपनी सिफारिश में तीखी टिप्पणी की है। सरकारी खरीद प्रणाली की खामियों के चलते सरकार को करोड़ों रुपये का चूना लगाया जा रहा है। आंकड़े बताते हैं कि खरीदे जाने वाले अनाज में खराब अनाज की मात्रा 14.5 फीसद तक पहुंच जाती है। नमी की मात्रा गेहूं में 14 फीसद तो धान में 17 फीसद तक पहुंच जाती है। इसमें समग्र बदलाव की जरूरत है जिस पर कोई चर्चा करने को राजी नहीं है। इसके मुकाबले प्राइवेट जिंस कारोबार में क्वालिटी मानक के तहत अधिकतम 10 फीसद तक कचरा, डैमेज और वेस्टेज निर्धारित है। वहीं, प्राइवेट जिंस कारोबार में 11 फीसद से अधिक नमी वाला अनाज कोई नहीं खरीदता है। नेशनल कमोडिटी एंड डेरिवेटिव्स एक्सचेंज (एनसीडीईएक्स) जैसे एक्सचेंजों में भी इसी मानक पर कारोबार होता है। लेकिन सरकारी खरीद में यह 28.5 फीसद तक पहुंच जाता है। एफसीआइ के पास फिलहाल पौने चार लाख करोड़ रूपये का अनाज पड़ा हुआ है। यानी इसमें से लगभग एक लाख करोड़ का अनाज इस लायक नहीं है कि उसका वितरण किया जाए, लेकिन गरीबों में वह बांट दिया जाता है। एमएसपी खरीद और चु¨नदा किसानों को लाभ के नाम पर हो रहा यह भ्रष्टाचार किसी से छिपा नहीं है। लेकिन इसे छूने का साहस कोई नहीं जुटा पाता है।
एमएसपी की जगह बाजार का रुख करना होगा
सिर्फ क्वालिटी मानक को दुरुस्त करके इसे बचाया जा सकता है। लेकिन उसके लिए एमएसपी की जगह बाजार का रुख करना होगा। यह सारी कहानी एफसीआइ की सालाना बैलेंस शीट बताती है। इस पर कई बार नियंत्रक एक महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने तीखी टिप्पणी की है। खाद्य विशेषज्ञों का कहना है कि एफसीआई के अनाज की न तो क्वालिटी रह गई है और न खुले बाजार में कोई उसका उचित दाम दे सकता है।
सरकारी खरीद में एफसीआइ की हिस्सेदारी लगातार घटते हुए पांच फीसद पर सिमटी
एमएसपी के बूते खरीद करने और पीडीएस में वितरण करने वाली संस्था एफसीआइ में अधिकारियों व कर्मचारियों के 42,000 से अधिक पद सृजित हैं। हैरानी की बात यह है कि सरकारी खरीद में एफसीआइ की हिस्सेदारी लगातार घटते हुए पांच फीसद पर सिमट गई है। बाकी खरीदारी राज्यों की एजेंसियां करती हैं। शांता कुमार कमेटी ने इस पर भी सवाल खड़े किए हैं। जिस पंजाब से गेहूं की सर्वाधिक खरीद होती रही है, वहां इसकी प्रोसेसिंग के क्षेत्र में निवेशक नहीं आते हैं। राज्य में रोलर फ्लोर मिलर्स नहीं के बराबर हैं। पंजाब में दूसरे राज्यों से तैयार आटा, सूजी और मैदा बिकते हैं। इसकी बड़ी वजह यह है कि राज्य में न तो उचित गुणवत्ता का गेहूं मिलता है और न ही धान। एमएसपी पर बेचने के लिए सारा ध्यान अधिकतम पैदावार वाली प्रजाति की खेती पर होता है, क्वालिटी कंट्रोल की जरूरत ही नहीं है।
पीडीएस में दी जाने वाली सब्सिडी के तरीके में भी बदलाव जरूरी
योजना आयोग के पूर्व सचिव व खाद्य प्रबंधन मामलों के विशेषज्ञ एनसी सक्सेना का कहना है एफसीआइ का होना बहुत जरूरी है। नौ करोड़ टन अनाज की खरीद करना और देश के सुदूर क्षेत्रों तक अनाज पहुंचाना एक मैराथन कार्य है, जिसे एफसीआइ जैसी कोई संस्था ही कर सकती है। लेकिन इसमें व्याप्त भ्रष्टाचार से निपटना भी जरूरी है। वे कहते हैं, ‘पीडीएस में दी जाने वाली सब्सिडी के तरीके में भी बदलाव की तत्काल आवश्यकता है। उपभोक्ताओं को क्वालिटी अनाज देने के लिए निर्धारित दुकानों से एफसीआइ के लागत मूल्य पर अऩाज दिए जाएं। दुकान से अनाज उठाते ही सब्सिडी का भुगतान संबंधित उपभोक्ता के बैंक खाते में डीबीटी (डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर) के माध्यम से तुरंत जमा होना चाहिए। रियायती दुकानों के साथ निजी दुकानदारों को भी इसकी सुविधा मुहैया कराई जा सकती है। उपभोक्ताओं अपनी मर्जी से अच्छी क्वालिटी का अनाज उठाने की छूट मिलनी चाहिए।’ सरकारी खरीद और पीडीएस से अनाज वितरण में खाद्य सब्सिडी बढ़कर डेढ़ लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गई है। इसका उचित फायदा न तो देश के सभी किसानों को मिल पा रहा है और न ही उपभोक्ताओं को अच्छी क्वालिटी का अनाज हासिल हो रहा है।