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समस्याएं बढ़ाती संवाद की कमी: पहले सीएए के विरोध में प्रदर्शन और अब किसान संगठनों का आंदोलन

पिछले साल देश ने दो ऐसी स्थितियों का सामना किया जो सिर्फ प्रायोजित पारस्परिक अविश्वास, पूर्वाग्रहों तथा संवादहीनता के कारण ही पनपीं और लाखों लोगों को कठिनाइयों में डाल गईं। इनमें पहला था सीएए के विरोध में दिया गया लंबा धरना और उसके बाद हुए दंगे तथा दूसरा साल के अंतिम महीनों में प्रारंभ हुआ कुछ किसान संगठनों का आंदोलन। ये दोनों जिस स्वरूप और परिस्थिति में उभरे और आगे बढे़, वह किसी भी सशक्त संवाद परंपरा में स्वत: ही अनावश्यक हो जाते। वास्तव में संवाद ही वह सर्व-स्वीकार्य सशक्त माध्यम है जो किसी भी वाद को विवाद में परिर्वितत होने से बचाता है। एक सभ्य समाज में अपेक्षा तो यही की जाती है कि किसी भी प्रकरण में सभी संबंधित पक्ष पूरी निष्ठा से संवाद का सहारा लेंगे। यह भी एक तथ्य है कि हर समाज में कुछ विघटनकारी तत्व सदा सक्रिय रहते हैं जो स्वार्थ और अज्ञान के वशीभूत होकर संवाद के हर प्रयास को विफल करने में अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं। इस सबसे राष्ट्र का कितना अहित होता है, इसकी चिंता वे नहीं करते हैं। व्यक्तियों के जीवन और राष्ट्रीय संपत्ति की हानि से भी वे प्रभावित नहीं होते हैं।

देश में आंतरिक अव्यवस्था को तूल देने के लिए बाह्य तत्व ताक में रहते हैं

भारत की राजनीतिक, सांस्कृतिक, पंथिक और भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि यहां आंतरिक अव्यवस्था को किसी न किसी आधार पर तूल देने के लिए बाह्य तत्व ताक में रहते हैं। इसके उदाहरण लगातार मिलते रहे हैं। 1962 के भारत-चीन युद्ध को अभी लोग भूले नहीं हैं। देश में एक वर्ग उस समय भी भारत को आक्रांता मानता था, आज भी मानता है, आजादी के नारे लगवाता है, भारत के टुकड़े-टुकड़े करने की आकांक्षा रखनेवालों के साथ खड़ा होता है, जिन्ना के महिमामंडन का समर्थन करता है, जेएनयू में स्वामी विवेकानंद की र्मूित लगाने का विरोध करता है और किसानों तथा सरकार के समझौते में पलीता लागाता है। ऐसे लोगों को उस बौद्धिक वर्ग का भी मुखर समर्थन मिलता है, जो पश्चिम में भारत की आलोचना के आधार पर अपनी पहचान बनाता है, मानवाधिकारों का संरक्षक बनता है और समय-समय पर वक्तव्य देकर या अवार्ड-वापसी कर अपनी ओर ध्यान आर्किषत करता है। यह वर्ग केवल अपनों तक सीमित रहता है, ‘जो हमारे जैसा सोचें, वे हमारे’ से आगे बढ़ नहीं पाता है। इसी संकुचित दृष्टि से गंभीर राष्ट्रीय समस्याएं जन्म लेती हैं।

संवाद वही प्रारंभ कर सकता है, जिसकी नीति स्पष्ट, नीयत निर्मल और लक्ष्य कल्याणकारी हो

भारत में ज्ञान की सामान्य चर्चा में भी प्रश्न, प्रतिप्रश्न और परिप्रश्न का संदर्भ आता है। इस समय ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे कुछ सामाजिक और राजनीतिक पक्ष इस विधा को पूरी तरह भूल गए हैं। संवाद वही प्रारंभ कर सकता है, जिसकी नीति स्पष्ट, नीयत निर्मल और लक्ष्य कल्याणकारी हो और वह पूर्वाग्रहों से पूरी तरह मुक्त हो। ऐसा व्यक्ति शंकालु, पूर्वाग्रही तथा हठी व्यक्ति और वर्ग या समाज को भी प्रभावित कर सकता है। इसका जीवंत उदाहरण स्वामी विवेकानंद के जीवन और कृतित्व में निहित है। घनघोर कठिनाइयों को उत्साहपूर्वक सहन करते हुए स्वामी विवेकानंद ने शिकागो के सर्व धर्म सम्मलेन में जो कालजयी उद्बोधन प्रस्तुत किया था, उसकी गूंज आज भी उस हर संवेदनशील व्यक्ति को सुनाई पड़ती है जो प्रत्येक मनुष्य को अपने समकक्ष मानकर उसका सम्मान करता है। हर विविधता को स्वीकार करते हुए मानवमात्र की पारस्परिकता में विश्वास रखता है।

स्वामी विवेकानंद ने शिकागो सम्मलेन में चार शब्द बोलकर सबका हृदय जीत लिया था

स्वामी विवेकानंद जी शिकागो सम्मलेन में सबसे अंत में बोले थे। उनके मुंह से जैसे ही पहले चार शब्द निकले, ‘अमेरिका निवासी भाइयों और बहनों’, सारे उपस्थित लोग जैसे एकाएक सम्मोहित हो गए। सभी खड़े होकर करतल-ध्वनि करने लगे। उस अपरिचित स्वामी ने उनका हृदय जीत लिया था। उनकी वाणी में जो पारदर्शिता और निर्मलता समाहित थी, वह उन सबके हृदय में उतर गई। इसमें वह भी शामिल थे जो वहां केवल यह स्थापित करने गए थे कि उनका धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है और बाकी सभी को उसी में लाकर उनका उद्धार करना है। स्वामी जी के भाषणों के बाद ‘द न्यूयॉर्क हेराल्ड’ ने लिखा कि जिस देश में इतना समृद्ध ज्ञान पहले से ही उपस्थित है, वहां धर्म-प्रचारक भेजना मूर्खता है। आज देश की युवा पीढ़ी ऐसे ही आइकान ढूंढ रही है जो उन्हेंं भारत और भारतीयता से परिचित करा सके।

भारत सजग और सतर्क युवा जानते हैं कि उनके समक्ष सारा विश्व-पटल खुला है

‘सर्व भूत हिते रता:’, ‘लोका: समस्ता: सुखिनो भवंतु’, और एकम् सत् विप्रा: बहुधा वदंति’ में निहित दर्शन को व्यावहारिक जीवन में उतारकर ही भारत महान बना था। इन्हेंं छोड़कर केवल पश्चिम की नकलकर आगे नहीं बढ़ा जा सकेगा। इस दैनंदिन व्यावहारिकता को पुन: प्राप्त करने के लिए देश को ऐसे युवा चाहिए जो किसी भी प्रकार की संकीर्णताओं से हटकर सोच सकें, प्रगति और विकास के मार्ग पर डाले जाने वाले अवरोधों के प्रति सचेत रहें, सामाजिक सद्भाव और पंथिक समरसता के आधार को और अधिक सशक्त करने में कोई ढील न आने दें। भारत के युवाओं ने पिछले सात दशकों में वैश्विक स्तर पर देश का सम्मान बढ़ाया है। पहले अमेरिका की अंतरिक्ष संस्था नासा तथा बाद में सिलिकॉन वैली इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। भारत अपने प्रयत्नों से ही विश्व में अपना अपेक्षित स्थान और गौरव प्राप्त करने की राह पर विश्वासपूर्वक बढ़ रहा है। आज भारत के युवा सजग और सतर्क हैं। वे जानते हैं कि उनके समक्ष सारा विश्व-पटल खुला है। लोग भारत से कुशल और प्रशिक्षित युवाओं की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इसके लिए आवश्यक है कि उन्हेंं उच्चतम स्तर की शिक्षा मिले। ज्ञान, विज्ञान, नवाचार के निर्बाध अवसर मिलें। जब भारत के मूल स्वरूप और प्राचीन ज्ञान-विज्ञान, दर्शन-आध्यात्म की समझ के साथ पश्चिम में विकसित विज्ञान, तकनीकी का समायोजन होगा, तब विश्व कल्याण और शांति का पथ स्वत: ही खुल जाएगा। फिर विघटनकारी तत्वों से छुटकारा भी मिल जाएगा।