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Jharkhand Lockdown: आमदनी अठन्नी, खर्चा रुपया… दोहरे संकट में फंसी हेमंत सरकार

रांची। आमदनी अठन्नी, खर्चा रुपया। कोरोना वायरस से उपजी कोविद-19 महामारी से जूझ रहे झारखंड पर फिलहाल यह कहावत बिल्कुल सही बैठ रही है और इसका असर अब सरकार के कामकाज पर दिखने लगा है। कम पड़ते संसाधनों के चलते गठबंधन सरकार के तमाम मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन तक खीजते दिख रहे हैं और लगातार केंद्र पर निशाना साध रहे हैं। आय कैसे बढ़े, इस पर नौकरशाही गहनता से मंथन में जुटी है लेकिन कहीं से कोई उपाय सूझ नहीं रहा.

शराब, जमीन-मकानों की रजिस्ट्री और पेट्रोल-डीजल के दामों में वृद्धि के बावजूद खजाने की स्थिति में कोई सुधार नहीं हो रहा है और खर्च का बोझ बढ़ता जा रहा है। प्रवासी मजदूरों की वापसी के साथ-साथ राज्य में कोरोना मरीजों की संख्या में भी लगातार बढ़ोतरी हो रही है। गुरुवार दोपहर तक राज्य में कोरोना के 434 सक्रिय केस हैं, जबकि 342 मरीज ठीक होकर घर लौट चुके हैं। जिन पांच लोगों की इस बीमारी से जान गई है दुर्भाग्यवश वह पहले से कुछ दूसरी गंभीर बीमारियों से ग्रसित थे। स्वाभाविक डर के साथ ही निराशा का माहौल है। राजनीतिक गलियारों में भी तमाम तरह की चर्चाएं गरम हैंं।

गठबंधन सरकार की स्थिति सिर मुड़ाते ही ओले पड़े जैसी हो गई है। लंबे-चौड़े वादों के सहारे सत्ता में आने के बाद पहले दो महीने तो सरकार गठन में ही बीत गए। जब तक ठीक से काम-काज शुरू होता कोरोना ने दस्तक दे दी। पहले से ही खजाना खाली होने का रोना रो रही नई सरकार पर यह मुसीबत कहर बनकर टूटी है। वैसे तो सभी राज्य खराब वित्तीय हालात से जूझ रहे हैं लेकिन झारखंड की स्थिति कुछ ज्यादा ही गंभीर हो गई है। अभी तक सरकार इस महामारी से जैसे लड़ रही है, उससे यह आशंका बलवती होती जा रही है कि कोरोना के बाद राज्य और गरीबी के गर्त में चला जाएगा। उद्योग-धंधो को लेकर सरकार के पास किसी स्पष्ट नीति अथवा सोच का घोर अभाव दिख रहा है।

अब जब तमाम राज्यों में उद्योग-धंधे और कामकाज धीरे-धीरे पटरी पर आ रही है, झारखंड सरकार यहां के उद्यमियों की छोटी-छोटी समस्याओं का भी ठीक से निस्तारण नहीं कर सकी है। कोई राहत पैकेज तो दूर, यह भरोसा दिलाने में भी कामयाब नहीं हुई है जिससे उद्यमी उत्साह से अपने कारखाने खोल सकें। ऐसी परिस्थितियों में बड़ी संख्या में राज्य में लौट रहे प्रवासी मजदूरों को सरकार काम कैसे दिलवाएगी, इस पर सवाल उठने शुरू हो गए हैं। सिर्फ मनरेगा के सहारे राज्य में कितने रोजगार पैदा होंगे, ये सवाल सरकार से पूछे जाने लगे हैं। झारखंड की बेरोजगारी दर भी देश में सबसे ज्यादा 60 प्रतिशत तक पहुंच गई है। संकट यहीं तक होता तो भी निपटा जा सकता था।

लाखों प्रवासी मजदूरों के लौटने से अर्थव्यवस्था को दोहरा झटका लगा है। पहला, सरकार को इनके लिए रोजी-रोटी का इंतजाम करना है। दूसरा, ये मजदूर हर साल राज्य को करीब तीन हजार करोड़ रुपये कमाकर भेजते थे फिलहाल वह भी बंद हो गया है। ऐसी विकट स्थितियों से दो-चार सरकार आय बढ़ाने के जितने उपाय कर रही है वह नाकाफी साबित हो रहे हैं। झारखंड की वित्तीय स्थिति की बात करें तो राज्य गठन के बाद से ही प्रदेश अपने पांव पर खड़ा नहीं हो सका है। राज्य के खुद के कर से आने वाली आमद कुल बजट के 20-25 फीसद के दायरे में ही रही है। गैर कर राजस्व की हिस्सेदारी भी इसमें मिला लें तो भी आंकड़ा 35 फीसद से ऊपर नहीं जाता।

सीधे शब्दों में समझें तो राज्य की विकास योजनाएं पूरी तरह से केंद्र के भरोसे ही है। केंद्रीय करों में हिस्सेदारी, केंद्र से अनुदान के रूप में मिलने वाली राशि और ऋण के मद में आने वाली राशि से किसी तरह काम चलता रहा है। इस वित्तीय वर्ष की शुरुआत से ही राजस्व के मोर्चे पर सरकार को झटका लगना शुरू हो गया है। कोरेाना के लॉक डाउन से राज्य सरकार को राजस्व का बड़ा घाटा हुआ है। राजस्व एवं निबंधन, उत्पाद और परिवहन से आय न के बराबर हुई है। खनन से कोई आमद नहीं हुई है। जबकि वाणिज्यकर विभाग का प्रदर्शन खासा निराशाजनक रहा है।

अप्रैल माह में 600 करोड़ आए, जिसमें जीएसटी कंपनसेशन की पिछले वित्तीय वर्ष के नवंबर माह की 190 करोड़ की राशि भी शामिल है। मई 447 करोड़ में सिमट कर रह गया। यही गति रही तो 17000 करोड़ के निर्धारित लक्ष्य का आधा भी हासिल हो जाए तो बहुत है। राजस्व की चिंता में दुबली हो रही सरकार ने पेट्रोल और डीजल के दामों में ढाई-ढाई रुपये की वृद्धि की है, आगे और भी दाम बढ़ाने की तैयारी है। शराब पर 20 फीसद से अधिक का टैक्स बढ़ाया गया है। महिलाओं के नाम एक रुपये में होने वाली रजिस्ट्री को भी बंद कर दिया गया है।

राज्य सरकार पर देनदारी का भी बड़ा बोझ है। बिजली आपूर्ति के मद के दामोदर घाटी निगम (डीवीसी) का लगभग 5000 करोड़ रुपये का बकाया राज्य सरकार पर है। कोरोना का संकट आरंभ होने के पहले डीवीसी ने अल्टीमेटम देते हुए बिजली में भारी कटौती की तो 200 करोड़ रुपये सरकार ने जारी किए। अब सबसे बड़ा संकट यह है कि सरकार के वित्तीय स्त्रोत सीमित हैं तो बकाया राशि का भुगतान आखिरकार कैसे होगा? इसके लिए एकमात्र सहारा कर्ज है। जाहिर है वर्तमान हालात में सरकार पर ऋण का बोझ बढ़ेगा।

ऐसे में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन राजनीतिक समझदारी दिखाकर राज्य को संकट से उबार सकते हैं। इसके लिए उन्हें केंद्र सरकार के साथ बेहतर समन्वय स्थापित करना होगा। जो अभी नहीं दिख रहा है। गठबंधन की सहयोगी कांग्रेस कोटे के मंत्री तो लगातार केंद्र और प्रधानमंत्री पर भेदभाव का आरोप लगा रहे हैं। पिछले कुछ दिनों से हेमंत सोरेन भी उसी भाषा में बोल रहे हैं। वह तो उनसे भी एक कदम आगे जाकर कह रहे हैं राज्य को उसके हाल पर छोड़ दिया गया है। अंदरखाने राजनीतिक गतिविधियां भी बढ़ती जा रही हैं। झारखंड के इतिहास से वाकिफ राजनीतिक विशेषज्ञों को यहां अगले कुछ महीनों में काफी कुछ उथल-पुथल की संभावनाएं दिख रही हैं।

प्रदीप शुक्‍ला

स्‍थानीय संपादक, झारखंड