Logo
ब्रेकिंग
रामगढ़ में सड़कों पर खुलेआम पशुओं को छोड़ने वाले मालिकों की अब खैर नहीं! बिजुलिया तालाब का होगा सौंदर्यीकरण, विधायक सुनीता चौधरी ने किया शिलान्यास, बोटिंग, सिटिंग, झूले और भ... नशे के सौदागरों के विरुद्ध रामगढ़ पुलिस की बड़ी कार्रवाई, 2 करोड़ से अधिक का गांजा जप्त, एक गिरफ्तार मॉबली*चिंग के खिलाफ भाकपा-माले ने निकाला विरोध मार्च,किया प्रदर्शन छावनी को किसान सब्जी विक्रेताओं को अस्थाई शिफ्ट करवाना पड़ा भारी,हूआ विरोध व गाली- गलौज सूक्ष्म से मध्यम उद्योगों का विकास हीं देश के विकास का उन्नत मार्ग है बाल गोपाल के नए प्रतिष्ठान का रामगढ़ सुभाषचौक गुरुद्वारा के सामने हुआ शुभारंभ I पोड़ा गेट पर गो*लीबारी में दो गिर*फ्तार, पि*स्टल बरामद Ajsu ने सब्जी विक्रेताओं से ठेकेदार द्वारा मासूल वसूले जाने का किया विरोध l सेनेटरी एवं मोटर आइटम्स के शोरूम दीपक एजेंसी का हूआ शुभारंभ

दुनिया को जोड़ने की चुनौती: आज से अमेरिका की कमान संभालने जा रहे बाइडन को ट्रंपवाद से छुटकारा पाना नहीं होगा आसान

तमाम ऊहापोह और लंबी कशमकश के बाद आखिरकार आज से जो बाइडन व्हाइट हाउस के नए मेजबान बनने जा रहे हैं। हालांकि अमेरिका के 46वें राष्ट्रपति के रूप में उनकी राह किसी भी लिहाज से आसान नहीं रहने वाली है। इसका कारण यही है कि उनके पूर्ववर्ती डोनाल्ड ट्रंप उनके लिए न केवल घरेलू स्तर पर, अपितु अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर चुनौतियों के अंबार से जुड़ी विरासत छोड़कर जा रहे हैं। वास्तव में बाइडन को एक अत्यंत विभाजित राष्ट्र का नेतृत्व संभालना है। इस विभाजन की दरारें कितनी गहरी हो गई हैं उसके संकेत छह जनवरी को तब स्पष्ट दिख गए थे जब एक अप्रत्याशित घटनाक्रम के तहत ट्रंप समर्थकों ने अमेरिकी संसद कैपिटल हिल पर धावा बोलकर अमेरिका की जगहंसाई कराई थी। यह वाकया अमेरिका को इतना असहज करने वाला था कि चीन जैसे तानाशाह देश अमेरिका को लोकतंत्र के मसले पर आईना दिखाने लगे तो रूस उसे लोकतंत्र का ककहरा सिखाने में जुट गया और तीसरी दुनिया के तमाम वे देश भी अमेरिका पर चुटकी लेने में पीछे नहीं रहे जहां लोकतंत्र की स्थापना की आड़ में अमेरिका ने हमेशा अपने हितों को पोषित करने का काम किया।

बाइडन की पहली प्राथमिकता घरेलू मोर्चे पर बनीं दरारों को भरने की होगी

स्पष्ट है कि 20 जनवरी को राष्ट्रपति के रूप में पदभार संभालने के साथ ही बाइडन की पहली प्राथमिकता घरेलू मोर्चे पर बनीं इन दरारों को भरने की होगी। हालांकि इन दरारों की जड़ें खासी गहरी हैं। ट्रंप के दौर में बस ये और चौड़ी ही हुई हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि ट्रंप ने अमेरिकी जनादेश को गरिमापूर्वक स्वीकार नहीं किया। नवंबर में नतीजे आने के बाद ही वह लगातार उन पर सवाल उठाते रहे हैं। यहां तक कि अब भी उनके एक बड़े समर्थक वर्ग को यही लगता है कि चुनाव में ट्रंप के साथ धांधली हुई। नतीजों को लेकर उनमें आक्रोश व्याप्त है। इसी आक्रोश र्की ंहसक अभिव्यक्ति उन्होंने अमेरिकी संसद पर हुड़दंग मचाकर भी की। निश्चित रूप से ट्रंप चाहते तो ऐसी अप्रिय स्थिति से बचा जा सकता था। हालांकि विपक्षी खेमा भी इसके लिए कम कुसूरवार नहीं। ऐसा इसलिए, क्योंकि जब ट्रंप राष्ट्रपति चुने गए तो उनकी प्रतिद्वंद्वी हिलेरी क्लिंटन और उनके समर्थक बार-बार यह आरोप लगाते रहे कि वह रूस के हस्तक्षेप से जीते हैं। इन आरोपों की गहन जांच हुई, लेकिन साक्ष्यों के आधार पर ये आरोप कहीं नहीं टिके। ऐसे में यही कहा जा सकता है कि अमेरिकी राजनीति और समाज में ऐसा असंतोष नया नहीं है और ट्रंप के दौर में उसे बस और मुखर अभिव्यक्ति ही मिली। बाइडन को सबसे पहले अमेरिकी समाज में बढ़ते इस असंतोष और ध्रुवीकरण पर विराम लगाना होगा। हालांकि नतीजों के बाद से ही वह ‘र्हींलग’ यानी सहानुभूति जताने और मरहम लगाने की बात कर रहे हैं। ऐसे में यही देखना होगा कि इसमें वह कितने सफल हो पाते हैं।

बाइडन के दो कार्य: कोरोना के खिलाफ अभियान को गति देना और अर्थव्यवस्था मजबूत करना

हीलिंग की प्रक्रिया में दो मोर्चों पर काम करना उनके लिए बहुत आवश्यक होगा। एक तो कोरोना के खिलाफ अपने अभियान को निर्णायक गति देनी होगी और दूसरे अमेरिकी अर्थव्यवस्था में आई कमजोरियों को दूर करने के पुरजोर प्रयास करने होंगे। उन्हें स्मरण रहे कि कोरोना के खिलाफ ट्रंप के ढुलमुल रवैया ही उनकी हार के सबसे प्रमुख कारणों में से एक माना गया। ऐसे में इस महामारी के खिलाफ उनसे अमेरिकी जनता की अपेक्षाओं का बढ़ना स्वाभाविक ही है, जहां कोविड-19 का कोहराम अभी भी जारी है। वहीं पहले से सुस्त पड़ी अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर कोरोना के कोप से हालात और बिगड़े हैं। इसलिए आर्थिक मोर्चे को दुरुस्त करना भी उनके लिए कड़ी चुनौती होने जा रही है।

ट्रंपवाद से छुटकारा पाना बाइडन के लिए आसान नहीं

अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान से भले ही ट्रंप की विदाई हो रही हो, लेकिन ट्रंपवाद से छुटकारा पाना बाइडन के लिए आसान नहीं होगा। असल में ट्रंप ने कई ऐसे मोर्चों पर अप्रत्याशित कदम उठाए जिन पर पारंपरिक अमेरिकी खांचे में आगे बढ़ना मुश्किल था। यही ट्रंपवाद है। जैसे बीते कई दशकों से चीन के समक्ष खुद को असहज पाता अमेरिका र्बींजग से मुकाबले या उसके साथ कड़ी सौदेबाजी की कोई राह तलाश पाने में कठिनाई महसूस कर रहा था, लेकिन ट्रंप ने एक झटके में अमेरिका की चीन नीति बदल दी, भले ही उसके जो परिणाम निकले हों। ऐसे में व्यापक तौर पर भले ही यह माना जा रहा हो कि बाइडन के राष्ट्रपति बनने के बाद चीन के साथ अमेरिका की सक्रियता-सहभागिता बढ़ेगी, लेकिन द्विपक्षीय संबंधों में पुराने दौर की वापसी असंभव होगी। चीन के प्रति अमेरिकी जनता में बढ़ता असंतोष भी बाइडन के मन में र्बींजग के प्रति किसी संभावित नरम कोने की राह रोकेगा। इतना ही नहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसी जिन अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से ट्रंप ने अमेरिका की कड़ियां तोड़ीं उन्हें बाइडन वापस जोड़ेंगे, लेकिन अपने तरीके से। इसमें उनके तेवर भले ही ट्रंप से जुदा होंगे, लेकिन मंशा ट्रंप से इतर नहीं होगी, क्योंकि नई व्यवस्था में वह अमेरिका के अनुकूल समीकरण ही बैठाना चाहेंगे। यानी इन संस्थाओं में अमेरिका की वापसी होगी, मगर सख्त सौदेबाजी के साथ। इसी तरह पश्चिम एशियाई परिदृश्य पर भी बाइडन के लिए बदलाव की बहुत गुंजाइश नहीं होगी।

बाइडन के संकेत: पुराने सहयोगियों के साथ नजदीकी से काम करने के इच्छुक

अभी तक बाइडन ने यही संकेत दिए हैं वह अमेरिका के पुराने सहयोगियों के साथ नजदीकी से काम करने के इच्छुक हैं। हालांकि ट्रंप के दौर में वाशिंगटन के प्रति सहयोगियों में बढ़े अविश्वास के कारण उन्हें इस दिशा में अतिरिक्त प्रयास करने होंगे। ऐसा इसलिए, क्योंकि बाइडन के तमाम आश्वासन भरे संकेतों के बावजूद यूरोपीय देशों ने उन्हें अनदेखा कर हाल में चीन के साथ समझौते पर अंतिम मुहर लगा ही दी। जहां तक भारत का प्रश्न है तो दोनों देशों के रिश्तों में गर्मजोशी और निरंतरता का प्रवाह कायम रहने के ही आसार हैं। इसके कई कारण हैं। एक तो पिछले दो दशकों में यदि किसी बड़े देश के साथ अमेरिका के रिश्तों में सिर्फ सुधार ही हुआ है तो वह देश भारत है। साथ ही बाइडन प्रशासन में कई प्रमुख पदों पर ऐसे लोगों को जगह दी गई है जिनकी न केवल भारत के साथ घनिष्ठता रही, बल्कि उन्होंने कई अहम मसलों पर नई दिल्ली के साथ तन्मयता से काम भी किया है। हालांकि अब भी कुछ मसलों पर दोनों देशों के बीच गतिरोध कायम हैं, लेकिन आक्रामक होते चीन और एक दूसरे की परस्पर आवश्यकता को देखते हुए उनका कोई न कोई हल निकालना कठिन नहीं होगा।