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‘नेतृत्व’ ही नहीं ‘नैरेटिव’ के मोर्चे पर भी फेल हो रही कांग्रेस, दिल्ली में दुर्गति, नेतृत्व संकट गहराया

दिल्ली में शीला दीक्षित के 15 सालों के बेमिसाल प्रदर्शन के बावजूद कांग्रेस बीते छह साल में उनका विकल्प नहीं तलाश पायी।

नई दिल्ली। दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हुई भारी दुर्गति से एक बार फिर स्पष्ट हो गया है कि बदली राजनीति में सबसे कारगर साबित हो रहे ‘नेतृत्व’ और ‘नैरेटिव’ के दो सबसे अहम मानकों पर पार्टी खरी नहीं उतर पा रही है।

भाजपा का विकल्प बनने से कांग्रेस बार-बार चूक रही

खुद को धर्मनिरपेक्षता की वैचारिक लड़ाई की सबसे मजबूत ताकत के रुप में पेश करने के बावजूद नेतृत्व और नैरेटिव की इस कमजोरी के कारण ही भाजपा का विकल्प बनने से कांग्रेस बार-बार चूक रही है। उसकी इस कमजोरी का फायदा क्षेत्रीय दलों और उसके क्षत्रपों को सीधे तौर पर मिल रहा है। राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद राष्ट्रीय नेतृत्व के विकल्प को लेकर पार्टी का लगातार जारी असमंजस काफी हद तक कांग्रेस के इस संकट के लिए जिम्मेदार है।

दिल्ली में भारी दुर्गति ने कांग्रेस की चुनौती को और बढ़ा दिया

राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में भाजपा को कमजोर करने की रणनीति के तहत आप की जीत में कांग्रेस नेता सांत्वना भले तलाश लें मगर सियासी हकीकत तो यही है कि दिल्ली में दुर्गति ने नेतृत्व को लेकर पार्टी की चुनौती को और बढ़ा दिया है। कांग्रेस ने नागरिकता संशोधन कानून-एनआरसी के खिलाफ भाजपा को दिल्ली के चुनाव में सीधी चुनौती दी। शाहीन बाग के विरोध प्रदर्शन, जामिया और जेएनयू के छात्रों के साथ हुई हिंसा-गुंडागर्दी के खिलाफ पार्टी ने केवल मुखर रही बल्कि उसके कई नेता समर्थन जताने के लिए इन सबके साथ खड़े भी हुए।

कांग्रेस सीएए-एनआरसी के समर्थकों के वोट भी आप के खाते में जाने से नहीं रोक पायी

बावजूद इसके कांग्रेस सीएए-एनआरसी की मुखालफत में पड़े होने वाले वोट भी अरविंद केजरीवाल के खाते में जाने से नहीं रोक पायी। जबकि आम आदमी पार्टी ने इन मुद्दों पर सहानुभूति रखते हुए भी सीधे विरोध से परहेज किया। इसी तरह भाजपा के हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद के सियासी दांव के फंदे में कांग्रेस बार-बार उलझती दिखाई पड़ी। कांग्रेस के इस उलझन का साफ तौर पर फायदा आम आदमी पार्टी ने उठाया।

कांग्रेस ‘मध्यमार्गी राजनीति’ के समावेशी नैरेटिव का संदेश जनता तक नहीं पहुंचा पा रही

दिल्ली में हुई दुर्गति पर ईमानदारी से पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने मंथन किया तो यह बिल्कुल साफ दिखाई देगा कि कांग्रेस सत्तर-अस्सी के दशक की अपनी ‘मध्यमार्गी राजनीति’ के समावेशी नैरेटिव का संदेश जनता तक नहीं पहुंचा पा रही है।

कांग्रेस की दूसरी बड़ी चुनौती राज्यों में मजबूत नेतृत्व का संकट

वहीं दिल्ली में चाहे अरविंद केजरीवाल हों, ओडिशा में नवीन पटनायक, बिहार में नीतीश कुमार, तेलंगाना में के चंद्रशेखर राव या आंध्रप्रदेश में जगन मोहन रेड्डी जैसे क्षेत्रीय क्षत्रप ये सभी कांग्रेस के समावेशी या मध्यमार्गी विमर्श के पुराने आजमाए फार्मूले के सहारे अपनी राजनीति को परवान चढ़ा रहे हैं। कांग्रेस की चुनौती केवल इसी मोर्चे पर ही नहीं है। उसकी दूसरी बड़ी चुनौती राज्यों में मजबूत नेतृत्व का जारी संकट है।

कांग्रेस के पास सूबों में नेतृत्व का दमदार चेहरों का अभाव

चुनाव दर चुनाव साबित हो गया है कि कांग्रेस केवल उन्हीं राज्यों में सत्ता या विपक्ष में मजबूती से खड़ी है जहां उसके क्षेत्रीय नेता मजबूत हों। पंजाब, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, राजस्थान, कर्नाटक, असम, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा जैसे सूबे इसके उदाहरण हैं, लेकिन देश के सबसे बड़े सूबे उत्तरप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल के बाद अब महाराष्ट्र भी इस सूची में शामिल हो गया है जिन सूबों में नेतृत्व का दमदार चेहरा नहीं होने की वजह से कांग्रेस दूसरे से लेकर चौथे नंबर की पार्टी बन चुकी है।

कांग्रेस छह साल में शीला दीक्षित का विकल्प नहीं तलाश पायी, पार्टी का नहीं खुला खाता

दिल्ली में शीला दीक्षित के 15 सालों के बेमिसाल प्रदर्शन के बावजूद कांग्रेस बीते छह साल में उनका विकल्प नहीं तलाश पायी। इसी का नतीजा रहा कि लगातार दूसरे चुनाव में कांग्रेस का खाता खुलना तो दूर उसके अधिकांश उम्मीदवारों की जमानत भी लुट गई। हालांकि सूबों में कांग्रेस के विकल्प बनने वाले नेतृत्व के नहीं उभर पाने की इस कमजोरी का दोष राज्यों के नेताओं पर मढ़ना उन पर ज्यादती होगी।

कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व की फीकी पड़ी चमक का असर राज्यों के नेतृत्व पर पड़ा

हकीकत की कसौटी पर देखा जाए तो सीधे तौर पर कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व की लगातार फीकी पड़ी चमक का असर राज्यों के नेतृत्व पर पड़ा है। सोनिया गांधी के करीब दो दशक के पार्टी अध्यक्ष के कार्यकाल में राज्यों में मजबूत क्षेत्रीय नेताओं को उभारने का राजनीतिक प्रक्रिया पर लगभग ताले में ही बंद हो गई। छत्तीसगढ में भूपेश बघेल का उभरना एक अपवाद जरूर है। जबकि राहुल गांधी अपने छोटे से कार्यकाल में अपने नेतृत्व को साबित करने के संघर्ष से ही जूझते रहे।

कांग्रेस के युवा चेहरों में राजनीतिक विरासत का योगदान ज्यादा

राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के युवा चेहरों के रुप में सचिन पायलट, जितिन प्रसाद, आरपीएन सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया, मिलिंद देवड़ा, राजीव सातव जैसे लोगों ने अपनी जो जगह बनाई है उसमें उनकी राजनीतिक विरासत का योगदान कहीं ज्यादा रहा है। इन चुनौतियों से उबरने की जगह कांग्रेस अब भी अपने राष्ट्रीय नेतृत्व के सबसे बड़े संकट का स्थायी समाधान नहीं तलाश पा रही।

कांग्रेस के नेतृत्व पर असमंजस का सीधा असर राज्यों के चुनाव में पड़ रहा

सोनिया गांधी लंबे समय तक पार्टी का नेतृत्व करने को तैयार नहीं और न ही उनकी सेहत इसकी इजाजत दे रही। तो राहुल गांधी की दुबारा वापसी पर भी पार्टी जल्द इधर-उधर का साहसी फैसला लेने का जोखिम नहीं उठा रही और इस असमंजस का सीधा असर राज्यों के चुनाव में कांग्रेस के प्रदर्शन पर पड़ रहा है। राहुल के इस्तीफे के बाद दिल्ली समेत चार राज्यों में हाल में हुए चुनावों के दौरान कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व के असमंजस का सीधा नुकसान पार्टी को होता हुआ दिखाई दिया।